बिहार चुनाव में छोटे दल: Chirag Paswan और Prashant Kishor का रणनीतिक प्रभाव

By: Rebecca

On: Wednesday, August 13, 2025 8:08 AM

बिहार चुनाव में छोटे दल: Chirag Paswan और Prashant Kishor का रणनीतिक प्रभाव
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बिहार की राजनीति हमेशा से दिलचस्प रही है, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनावों में एक नया मोड़ छोटे दलों की बढ़ती ताकत और रणनीतिक दांव-पेच के रूप में सामने आया है। जहां बड़े दल अपनी पारंपरिक वोट बैंक और गठबंधनों पर निर्भर हैं, वहीं छोटे दल एक “किंगमेकर” की भूमिका में उभर रहे हैं। खासकर चिराग पासवान और Prashant Kishor जैसे नेताओं की सक्रियता ने चुनावी समीकरण को और जटिल और रोमांचक बना दिया है।

छोटे दलों का बढ़ता महत्व

बिहार में पारंपरिक तौर पर जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी जैसी बड़ी पार्टियां राजनीति की धुरी रही हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में छोटे दलों ने वोट शेयर में धीरे-धीरे अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई है। इन दलों के पास सीमित सीटों पर लेकिन मजबूत पकड़ होती है, जिससे वे चुनावी नतीजों में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।

चिराग पासवान की LJP (RV) की रणनीति

चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (राम विलास) अब सिर्फ एक सहयोगी दल की तरह नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र राजनीतिक ताकत के रूप में चुनाव लड़ रही है। उनका युवा चेहरा और दलित-गरीब तबके में लोकप्रियता उन्हें कई सीटों पर सीधा मुकाबला करने की स्थिति में लाती है। वे विकास और युवा सशक्तिकरण के मुद्दों पर जोर देकर बीजेपी के साथ सामंजस्य बनाए रखते हुए भी अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रशांत किशोर का जनसुराज मिशन

चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर का “जनसुराज” अभियान गांव-गांव तक पहुंच रहा है। वे पारंपरिक राजनीति से हटकर जनता के बीच सीधा संवाद और विकास आधारित मुद्दों पर फोकस कर रहे हैं। उनका लक्ष्य है कि चुनावी राजनीति को केवल जाति समीकरण तक सीमित न रखकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे वास्तविक मुद्दों पर लाया जाए।

जातीय समीकरण में छोटे दलों की भूमिका

बिहार की राजनीति में जाति एक अहम कारक है। छोटे दल अक्सर अपने समुदाय विशेष के वोट बैंक पर मजबूत पकड़ रखते हैं। उदाहरण के तौर पर, चिराग पासवान दलित वोटरों को प्रभावित कर सकते हैं, जबकि प्रशांत किशोर का फोकस युवा और पढ़े-लिखे वोटरों पर है। यह समीकरण बड़े दलों के लिए चुनौती बन सकता है।

गठबंधन की मजबूरी और सौदेबाज़ी की ताकत

चुनावों में कोई भी पार्टी अगर पूर्ण बहुमत नहीं ला पाती, तो छोटे दलों की अहमियत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे में चिराग पासवान या प्रशांत किशोर जैसे नेता सरकार बनाने में “किंगमेकर” बन सकते हैं। उनकी सीटें कम होते हुए भी उनकी सौदेबाज़ी की ताकत बहुत ज्यादा होती है।

युवाओं को आकर्षित करने की होड़

दोनों नेताओं का फोकस युवाओं को जोड़ने पर है। चिराग पासवान सोशल मीडिया और रैलियों के माध्यम से आधुनिक बिहार की तस्वीर पेश करते हैं, जबकि प्रशांत किशोर सीधा जन संवाद और “पदयात्रा” के जरिए युवाओं को सक्रिय राजनीति में लाने की कोशिश कर रहे हैं।

विकास बनाम जाति की बहस

जहां बड़े दल जातीय आधार पर वोट जुटाने की पुरानी रणनीति अपनाते हैं, वहीं छोटे दल, खासकर प्रशांत किशोर, विकास आधारित एजेंडा को आगे ला रहे हैं। हालांकि, बिहार में जातीय समीकरण को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना अभी भी मुश्किल है।

ग्रामीण इलाकों में पैठ

छोटे दलों की एक खासियत यह है कि उनका सीधा और व्यक्तिगत संपर्क ग्रामीण वोटरों से होता है। चिराग पासवान गांवों में दलित बस्तियों और पिछड़े इलाकों का दौरा करते हैं, जबकि प्रशांत किशोर अपने “जनसुराज” अभियान के तहत गांव-गांव जाकर समस्याएं सुनते और समाधान का वादा करते हैं।

मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका

आज के दौर में सोशल मीडिया चुनाव प्रचार का सबसे बड़ा हथियार बन चुका है। चिराग पासवान अपनी आकर्षक छवि और प्रभावशाली भाषणों के जरिए मीडिया में सुर्खियां बटोरते हैं, वहीं प्रशांत किशोर अपने कैंपेन को डिजिटल प्लेटफॉर्म के जरिए युवाओं और शहरी वोटरों तक पहुंचा रहे हैं।

2025 चुनाव में संभावित असर

अगर 2025 के बिहार चुनाव में बड़े दलों को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो छोटे दलों की भूमिका निर्णायक होगी। चिराग पासवान की आक्रामक रणनीति और प्रशांत किशोर की “जमीनी राजनीति” उन्हें सत्ता समीकरण में अहम खिलाड़ी बना सकती है। इससे न केवल चुनावी नतीजे, बल्कि बिहार की राजनीतिक दिशा भी बदल सकती है।

निष्कर्ष:

बिहार में छोटे दल अब सिर्फ दर्शक नहीं, बल्कि चुनावी नाटक के मुख्य पात्र बन चुके हैं। चिराग पासवान और प्रशांत किशोर जैसे नेता यह साबित कर रहे हैं कि सीमित संसाधनों और सीटों के बावजूद, सही रणनीति और जनता से सीधा जुड़ाव बड़े-बड़े दलों के लिए चुनौती बन सकता है। आने वाले महीनों में बिहार की राजनीति में छोटे दलों का यह प्रभाव और भी गहराने वाला है।

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