भारतीय राजनीति में यदि किसी एक व्यक्ति ने पर्दे के पीछे रहकर सबसे अधिक प्रभाव डाला है, तो वह नाम है प्रशांत किशोर का। हाल ही में पत्रकार अनिल शारदा के साथ उनकी विस्तृत बातचीत ने उनके विचारों, अनुभवों और राजनीतिक दर्शन को और भी गहराई से सामने रखा है। यह Interview ना सिर्फ उनके कार्यशैली की झलक देता है, बल्कि उनके निजी संघर्षों और राजनीति को लेकर दृष्टिकोण को भी उजागर करता है।
शुरुआत एक सामान्य पृष्ठभूमि से
प्रशांत किशोर का जन्म बिहार के एक साधारण परिवार में हुआ था। उन्होंने एक डॉक्टर बनने की शुरुआत की, लेकिन आगे चलकर उनकी रुचि सार्वजनिक नीति और प्रशासन की ओर मुड़ गई। वे संयुक्त राष्ट्र (UN) में भी काम कर चुके हैं। उनका यह बैकग्राउंड उन्हें एक अलग सोच देता है, जो उनकी रणनीतियों में साफ नज़र आता है।
राजनीति में प्रवेश कैसे हुआ?
अनिल शारदा के साथ बातचीत में प्रशांत किशोर ने बताया कि राजनीति में उनका आना एक “आकस्मिक मोड़” नहीं था, बल्कि यह एक सोची-समझी योजना का हिस्सा था। 2011 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के लिए काम करना उनकी पहली बड़ी एंट्री थी, जिसने उन्हें रातोंरात एक “पॉलिटिकल स्ट्रैटजिस्ट” बना दिया।
‘I-PAC’ की नींव और उसका प्रभाव
प्रशांत किशोर ने Indian Political Action Committee (I-PAC) की स्थापना की, जिसने कई चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाई। चाहे 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत हो या फिर बाद में नीतीश कुमार, कैप्टन अमरिंदर सिंह और ममता बनर्जी की विजय—हर जगह I-PAC की भूमिका अहम रही।
प्रचार से ज़्यादा ज़मीन से जुड़ाव
इंटरव्यू के दौरान किशोर ने ज़ोर दिया कि वह केवल “ब्रांडिंग” और “सोशल मीडिया मैनेजमेंट” तक सीमित नहीं हैं। उनका मानना है कि चुनाव जीतने के लिए ज़मीनी सच्चाई को समझना ज़रूरी है। इसके लिए उन्होंने गाँव-गाँव जाकर जनता से बातचीत की और उनकी समस्याओं को गहराई से समझा।
राजनीति से मोहभंग और वापसी
एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली। उन्होंने कहा कि राजनीति में आदर्श और वास्तविकता के बीच बहुत बड़ा अंतर है। लेकिन जनता से जुड़ाव और बदलाव की चाहत ने उन्हें फिर से सक्रिय कर दिया। उनका मानना है कि राजनीति को दूर से देखने के बजाय, उसमें रहकर बदलाव लाना ज़्यादा ज़रूरी है।
बिहार फोकस: जन सुराज मिशन
प्रशांत किशोर ने अब बिहार में जन सुराज अभियान की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य है “साफ-सुथरी राजनीति और जनभागीदारी।” यह कोई पारंपरिक पार्टी नहीं बल्कि एक आंदोलन है, जो ज़मीनी नेतृत्व को उभारने की कोशिश कर रहा है। उन्होंने कहा कि बिहार जैसे राज्यों को नई राजनीतिक सोच की ज़रूरत है।
नेताओं के पीछे नहीं, नीति के पक्ष में
इंटरव्यू में उन्होंने स्पष्ट किया कि वे किसी खास नेता के समर्थक नहीं हैं। उनका झुकाव न तो दाएं है और न ही बाएं—बल्कि उनकी नीतियाँ जनहित के अनुसार तय होती हैं। उन्होंने कहा कि व्यक्ति से ज़्यादा ज़रूरी है विचारधारा और नीतिगत स्पष्टता।
निजी आलोचनाओं पर उनका जवाब
जब अनिल शारदा ने पूछा कि उन्हें अक्सर “सत्ता का दलाल” या “राजनीति का व्यापारी” क्यों कहा जाता है, तो प्रशांत किशोर ने शांतिपूर्वक जवाब दिया कि, “जो लोग काम नहीं समझते, वो अक्सर नाम को गलत समझ बैठते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि आलोचना के बिना लोकतंत्र अधूरा है।
युवाओं और शिक्षा पर ज़ोर
एक खास बिंदु पर किशोर ने यह बात कही कि भारत का भविष्य उसके युवाओं और शिक्षा में है। उन्होंने बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में शिक्षा की दुर्दशा पर चिंता जताई और कहा कि यदि शिक्षा सही दिशा में नहीं गई, तो कोई भी राजनीतिक बदलाव टिकाऊ नहीं होगा।
आगे की राह और इरादे
इंटरव्यू के अंत में प्रशांत किशोर ने कहा कि उनकी लड़ाई अब चुनावी राजनीति से ज़्यादा एक सिस्टम चेंज की है। उनका उद्देश्य है ग्राम पंचायत स्तर से लेकर नीति निर्माण तक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना। उनका यह दृष्टिकोण उन्हें केवल एक रणनीतिकार नहीं, बल्कि एक परिवर्तनकारी नेता की श्रेणी में खड़ा करता है।
निष्कर्ष:
प्रशांत किशोर का यह इंटरव्यू हमें यह समझने में मदद करता है कि राजनीति केवल कुर्सी की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह विचार, नीति और समाज के विकास का मंच है। उनकी बातों में साफ झलकता है कि वे चुनावी सफलता से ज़्यादा जनता के जुड़ाव और सामाजिक बदलाव में विश्वास रखते हैं। अनिल शारदा के साथ यह इंटरव्यू न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करता है—क्या आज की राजनीति में ऐसे सोच वाले नेताओं की ज़रूरत नहीं है?