भारतीय राजनीति में परिवारवाद कोई नया विषय नहीं है। लेकिन जब बात बिहार की राजनीति और यादव परिवार की होती है, तो यह विषय और भी दिलचस्प हो जाता है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के संस्थापक लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव की राजनीतिक दिशा पिछले कुछ वर्षों से सुर्खियों में रही है। हाल ही में फिर एक बार यह सवाल उठने लगा है क्या तेजस्वी और तेज प्रताप के बीचPolitical उत्तराधिकार को लेकर टकराव हो सकता है?
परिवार की राजनीतिक विरासत का दबाव
लालू प्रसाद यादव ने दशकों तक बिहार की राजनीति पर राज किया है। जब लालू जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और कानूनी पाबंदियां बढ़ीं, तब परिवार की राजनीतिक कमान उनके बेटों के हाथों में आने लगी। ऐसे में यह स्वाभाविक था कि उत्तराधिकार को लेकर चर्चा होगी। तेजस्वी और तेज प्रताप, दोनों इस विरासत का हिस्सा हैं, लेकिन नेतृत्व को लेकर स्पष्टता नहीं है।
तेजस्वी यादव की स्थापित राजनीतिक पहचान
तेजस्वी यादव ने पिछले कुछ वर्षों में खुद को एक परिपक्व नेता के तौर पर प्रस्तुत किया है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने विपक्ष का चेहरा बनकर प्रभावी प्रदर्शन किया। उन्होंने राजद को युवा और मुद्दा आधारित पार्टी बनाने की कोशिश की है। यही वजह है कि पार्टी के भीतर और बाहर तेजस्वी को अगला उत्तराधिकारी माना जा रहा है।
तेज प्रताप यादव की बगावती छवि
तेज प्रताप यादव का राजनीतिक सफर थोड़ा अस्थिर रहा है। कभी वे शिवसेना की शैली में बयानबाजी करते हैं तो कभी पार्टी की नीतियों से असहमति जताते हैं। तेज प्रताप ने खुद की एक “लालू-रावण सेना” बनाई, जो इस बात का संकेत देती है कि वे पार्टी में खुद को हाशिए पर नहीं देखना चाहते।
भाईचारे में बढ़ती दूरी
हाल के समय में तेजस्वी और तेज प्रताप के बीच सार्वजनिक मंचों पर कम मुलाकातें, एक-दूसरे को लेकर बयानबाजी और सोशल मीडिया पोस्ट से यह संकेत मिला है कि दोनों भाइयों के बीच दूरी बढ़ रही है। हालांकि परिवार इन बातों को नकारता रहा है, पर राजनीतिक संकेत कुछ और ही कहते हैं।
राजद में नेतृत्व को लेकर अंदरूनी खींचतान
राजद के कई वरिष्ठ नेता तेजस्वी के समर्थन में हैं, लेकिन तेज प्रताप को लेकर संशय है। कुछ कार्यकर्ता तेज प्रताप को “जमीनी नेता” मानते हैं जबकि अधिकांश नेतृत्व तेजस्वी की रणनीति और संयम को पसंद करता है। इससे पार्टी के अंदर एक अनकहा ध्रुवीकरण बनता दिख रहा है।
मीडिया में बढ़ती अटकलें
टीवी डिबेट्स, समाचार लेख और सोशल मीडिया पर तेजस्वी बनाम तेज प्रताप की चर्चा अब आम हो गई है। चाहे वह तेज प्रताप के बयान हों या तेजस्वी की चुप्पी — हर बात को इस विवाद से जोड़कर देखा जा रहा है। मीडिया के इस फोकस ने विवाद को और हवा दी है।
राजनीतिक विरोधियों का लाभ
भाजपा, जदयू और अन्य विपक्षी दल यादव परिवार के भीतर की दरार को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे लगातार यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि राजद एक परिवारिक झगड़े की शिकार पार्टी बन चुकी है और जनता को विकल्प की जरूरत है।
लालू प्रसाद यादव की भूमिका और चुप्पी
लालू जी अब सक्रिय राजनीति से भले ही दूर हों, लेकिन उनका प्रभाव आज भी पार्टी पर गहरा है। उन्होंने कई बार पारिवारिक मतभेदों को शांत किया है, लेकिन हालिया विवादों पर वे अधिकतर चुप ही रहते हैं। यह चुप्पी कई बार अटकलों को और बल देती है।
जनता की नजर में विश्वसनीयता का सवाल
जनता विशेषकर युवाओं की नजर में आज नेता की छवि बहुत मायने रखती है। तेजस्वी जहां विकास और रोजगार जैसे मुद्दों पर बात करते हैं, वहीं तेज प्रताप कभी-कभी अपने असामान्य बयानों के कारण आलोचना का शिकार हो जाते हैं। अगर यह विवाद लंबा खिंचता है, तो इससे पार्टी की साख पर असर पड़ सकता है।
भविष्य की रणनीति: एकता या अलग राह?
सबसे बड़ा सवाल यही है — क्या यह भाईचारा पार्टी के हित में एकजुट होकर काम करेगा या अलग-अलग रास्तों पर चलेगा? यदि तेज प्रताप खुद की राजनीतिक राह बनाने की कोशिश करते हैं, तो यह राजद के लिए बड़ा झटका हो सकता है। वहीं अगर दोनों मिलकर एक रणनीतिक सहमति बना लेते हैं, तो यह पार्टी को और मजबूत बना सकता है।
निष्कर्ष
तेजस्वी और तेज प्रताप यादव दोनों ही लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक विरासत के अहम चेहरे हैं। लेकिन विरासत से ज्यादा महत्वपूर्ण है नेतृत्व की समझ, संयम और जनता का विश्वास। वर्तमान परिस्थिति में तेजस्वी आगे नजर आते हैं, लेकिन राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। अगर दोनों भाई मिलकर पार्टी और जनता के हित में काम करें, तो RJD एक बार फिर बिहार की राजनीति में बड़ी ताकत बन सकती है।